‘शिक्षक से मिलिए’ अर्ली बर्ड द्वारा एक मासिक श्रृंखला है, जिसमें हम भारत भर के उन शिक्षकों के काम को पेश करते हैं जो पक्षियों और प्रकृति के आनंद को सक्रिय रूप से फैला रहे हैं। इस महीने के विशेष शिक्षक हरियाणा के मांगर गांव के प्रकृति शिक्षक सुनील हरसाना हैं। उन्होंने अपने गांव के बच्चों को पर्यावरण शिक्षा प्रदान करने के लिए मांगर इको क्लब की स्थापना की।
An English translation of this interview can be found here.
हमें अपने बारे में कुछ बताइये। आप कहाँ से हैं और क्या काम करते हैं।
मेरा पूरा नाम सुनील हरसाना है, मै हरियाणा के फरीदाबाद जिले के अंतर्गत आने वाली अरावली पहाड़ियों के एक गांव मांगर का रहने वाला हूँ और पिछले करीब एक दशक से अपने गांव के आसपास के अरावली क्षेत्र में वन एवं वन्यजीव संरक्षण के लिए कार्य कर रहा हूँ। मैं “कोएग्ज़िस्टेंस फेल्लोस 2022” (Coexistence Fellows 2022) समूह का हिस्सा हूं, और दक्षिण हरियाणा के अरावली क्षेत्र में मानव और तेंदुए के संबंध पर काम कर रहा हूं।
क्या आप बर्डवाचर हैं? आपको पक्षियों को देखना क्यों पसंद है?
नहीं, मै बर्ड वाचर नहीं हूँ, मै एक संरक्षणवादी हूँ और राष्ट्रीय राजधानी की सीमा से सटी हुई विश्व की सबसे पुरानी पर्वत श्रंखलाओं में से एक अरावली के संरक्षण के लिए प्रयत्नशील हूँ। मेरा बचपन जंगल में रहकर गुजरा है और जंगल से जुडी हरेक चीज पेड़, पौधे, पशु-पक्षी, कीड़े मकोड़े हमेशा से मुझे आकर्षित करते रहे है। 2015 में मैंने अपने गाँव के बच्चों को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से इको क्लब स्थापित किया था।
इको क्लब के जरिए कई पक्षी विशेषज्ञों से मेरा सम्पर्क हुआ, जिनसे मुझे पक्षी जगत से जुड़े कई रहस्यों को जानने का मौका मिला। और बस तभी से पक्षियों और उनकी जीवनशैली में मेरी उत्सुकता बढ़ती चली गई। उनके व्यवहार जैसे कि खानपान, जोड़े बनाना, बच्चों का पालन पोषण सम्बन्धित आदतों का अध्ययन मेरे संरक्षण के कार्य में भी मेरे लिए बहुत मददगार साबित हुई। इसके अलावा पक्षी पर्यावरण से जुड़ने की सबसे आसान कुंजी है, इसलिए पर्यावरण शिक्षा के क्षेत्र में मेरी सफलता की वे अहम वजह भी है।
पर्यावरण शिक्षा में आपकी दिलचस्पी कब और कैसे बनी?
मेरा गांव मांगर राष्ट्रीय राजधानी की सीमा पर स्थित है परन्तु चारो तरफ से जंगल से घिरा हुआ है। जंगल के हिस्से को मांगर बनी के तौर पर पिछली कई पीढ़ियों से संरक्षित किया हुआ है, जहां पर हमारे इष्ट देव गुदड़िया बाबा वास करते है, ऐसी हमारी मान्यता है। साल 2011 में सरकार द्वारा प्रस्तावित विकास परियोजना से इस पवित्र वन क्षेत्र को बचाने के लिए मैंने एक मुहिम शुरू की थी और इस मुहिम के दौरान मेरा चेतन अग्रवाल, डा. गजाला शहाबुद्दीन, प्रदीप कृष्ण और विजय दशमाना जैसे पर्यावरण के क्षेत्र में विशेष जानकारी रखने वाले लोगो से संपर्क हुआ और मुझे इस इलाके में शोध कार्यों का स्थानीय सहायक के तौर पर हिस्सा बनने का मौका मिला। और इन शोध कार्यों के दौरान मुझे प्रकृति के बारे में बहुत सी नई जानकारियां हुई, जो इससे पहले मुझे नहीं पता थी। उत्सुकता कब आदत में बदल गई पता ही नहीं चला, नई जानकारियां पता करने की और दुसरे लोगों के साथ साझा करने की।
आप अपने काम से क्या हासिल करना चाहते हैं?
कुछ ज्यादा नहीं, एक पुरानी पीढ़ी जो प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर रखना जानती थी खत्म होने के कगार पर है। अभी की पीढ़ी बाजारवाद के थोपे हुए तथाकथित विकास के चकाचौंध से भ्र्मित है। संरक्षण की अपनी इस लम्बी यात्रा में मेरा अपना अनुभव यह है कि प्राकृतिक संसाधन चाहे वह जल, जंगल, वन्यजीव हो या नदियां इनका संरक्षण वहां के स्थानीय निवासियों के सहयोग के बिना नहीं हो सकता। क्योंकि संरक्षण उनकी स्थानीय परम्पराओं में विद्यमान रहता है। लेकिन दुर्भाग्य से, आज के समय में हम बाजारीकरण के उस भयंकर दौर से गुजर रहे है, जहां ऐसी बहुत सी परम्पराओं का हास् हो चूका है।
पुराने रीती रिवाज या तो तेजी से छूट रहे है या फिर बाजारवाद के अनुरूप ढल रहे है। हमारी भावी पीढ़ियां अपनी जड़ों से कटकर विकास की आंधी में बही जा रही है। ऐसे में प्राकृतिक संसाधनों को सहेजकर रखने के लिए भावी पीढ़ियों को प्रकृति से जोड़कर परम्पराओं को फिर से जीवित करना होगा। ऐसे में केवल पर्यावरण शिक्षा के जरिए ही हम अपनी आने वाली पीढ़ी को बाजारवाद के अतिक्रमण से बचा सकते है। ताकि वे मानव-प्रकृति के सह-आस्तित्व का सम्मान करते हुए विकास को सही तरीके से परिभाषित कर सके।
बच्चों के लिए पक्षियों और प्रकृति से जुड़ना क्यों ज़रूरी है?
बाल अवस्था मानव जीवन का वह समय होता है जब उसकी समझ बन रही होती है, साथ ही इस काल में वह जो भी कुछ देखता, समझता या सीखता है, उसका प्रभाव ताउम्र उसके क्रियाकलापों में दिखाई देता है। इसके अलावा आज के बच्चे ही कल का भविष्य है, इसलिए भी उनका न सिर्फ पक्षी बल्कि प्रकृति के सभी आयामों से जुड़ना बहुत जरुरी है।
आप पर्यावरण शिक्षा में किन संसाधनों का उपयोग करते हैं? क्या कोई ऐसा तरीका है जो आपके लिए काम आया हो?
फील्ड गाइड, विवरणिका, पुस्तिका, खेल, कला, साहित्य एवं कहानियां आदि सभी संसाधनों का उपयोग करता हूँ, और उनसे सहायता भी बहुत मिलती है। हालाँकि मुझे लगता है कि उनके सीखने में उनका अवलोकन प्रकृति के बारे में उनकी समझ बनाने का सबसे कारगर औजार है, बशर्ते उस औजार को सही समय पर सही तरीके दिशानिर्देशित किया जा सके।
आप को पर्यावरण शिक्षक के रूप में क्या कठिनाइयां आई हैं और उनका आपने कैसे सामना किया?
वैसे तो मै अपने आपको पर्यावरण शिक्षक नहीं मानता हूँ, क्योंकि मैंने बहुत कुछ इन बच्चों के साथ रहते हुए इन बच्चों से ही सीखा है। इसलिए मै इनके बीच अपने आपको इन्ही की तरह एक छात्र समझता हूँ, बस थोड़ी बड़ी उम्र वाला। सिखाने में बहुत से अन्य लोगों का सहयोग रहा है और अभी भी बहुत से लोग सहयोग कर रहे है। मेरी जिम्मेदारी ज्यादातर सिर्फ आयोजन करने की रही है। हालाँकि इसमें भी काफी चुनौतियाँ रहती है।
बाल अवस्था में मन बहुत चंचल होता है, कभी कभार की बात अलग होती है, परन्तु एक ही चीज उनसे बार बार हर सप्ताह करवाना यकीनन बहुत चुनौती वाला काम होता है। ऐसे में बच्चे बीच-बीच में बचने लगते है और वो समय बहुत हतास करने वाला होता है। इसके अलावा, आधुनिक माता-पिता भी बच्चों की सिर्फ किताबी शिक्षा को महत्व देते है और प्राय देखने में आया है कि कुछ बच्चे जो पर्यावरण में गहरी रुचि रखने लगते है तो उनको उनके माता-पिता की तरफ से ही नियंत्रित किया जाता है। हालाँकि विपरीत परिस्थितियों में हताशा को दूर रखकर कार्यक्रमों के निरंतर आयोजनों से इस तरह की चुनौतियों से निपटा जा सकता है।
बच्चों के साथ पर्यावरण शिक्षा का कोई यादगार अनुभव बताईए। क्या आप कोई ऐसी घटना याद कर सकते हैं जिसने आप के स्वरुप को अकार दिया?
हाँ, माँगर बणी जहां पर हम पर्यावरण गतिविधियों का आयोजन करते है एक पवित्र धार्मिक वन क्षेत्र है। तो किसी कार्य के समापन पर तेज आवाज में नारे लगाने का चलन है। पहले भी शायद जब किसी जंगली जानवर का सामना करने की संभावना और डर ज्यादा होता था तो लोग जंगल से गुजरते हुए तेज आवाज करते थे।हालाँकि अब तो वैसे ही चारो तरफ शोर बहुत ज्यादा है तो हम अपने बच्चों को बणी क्षेत्र में शोर नहीं करने को कहते है ताकि वहां पर रहने वाले पक्षियों को परेशानी न हो।
एक बार हमने बणी क्षेत्र में वृक्षारोपण कार्यक्रम का आयोजन किया। कार्यक्रम क्योंकि सरकार के द्वारा स्कूलों के माध्यम से आयोजित था तो स्कूल के अध्यापकों ने भी इसमें भाग लिया था। कार्यक्रम के समापन पर स्कूल के प्राध्यापक ने बच्चों को तेज आवाज में जयकारा लगाने को कहा तो बच्चों ने एक साथ पक्षियों के परेशान होने की बात कहते हुए अध्यापकों से बनी क्षेत्र में शोर नहीं करने की विनती की। उनकी बात सुनकर उनका प्राध्यापक निरुत्तर हो गया और मेरे लिए तो खैर वह समय सबसे अनमोल था मेरी जिंदगी का।
क्या आपको पर्यावरण शिक्षा के बाद बच्चों में कोई फ़र्क नज़र आया?
इको क्लब की स्थापना 2015 में हुई थी, विगत आठ सालों में पहले 2-3 बैच के बच्चे बड़े हो चुके है। उनमे से कई रोजगार नौकरी वगैरह भी करने लगे है। परन्तु एक बात जो मैंने उन बच्चों में नोटिस की है वह यह है कि प्रकृति के बारे में उन बच्चों का नजरिया अपनी उम्र की बाकी पीढ़ी के मुकाबले बहुत सकारात्मक है। अपने दैनिक क्रियाकलापों में वे प्रकृति संरक्षण को महत्व देते है और इस सबके अलावा वे पर्यावरण संरक्षण के लिए मेरे द्वारा किए जा रहे कार्यों में सहयोग भी करते है। कुछ बच्चे अपनी शिक्षा समाप्त करने के उपरांत सोशल मिडिया इंस्टाग्राम और यू ट्यूब जैसे आधुनिक माध्यमों का उपयोग करके पर्यावरण शिक्षा को बढ़ावा दे रहे है। मांगर इको क्लब के नाम से इंस्टाग्राम और फेसबुक पेज के अलावा यू ट्यूब चैनल है जो पूरी तरह से इको क्लब के बच्चों के द्वारा संचालित किया जाता है।
आप अपने साथी शिक्षकों को क्या सन्देश देना चाहेंगे? या उनको जो पर्यावरण शिक्षा शुरू कर रहे हैं?
कुछ ख़ास नहीं, सिर्फ इतना ही कि पर्यावरण शिक्षा का मतलब बच्चों या बड़ों को ज्यादा जानकारी प्राप्त करने की होड़ करवाना नहीं होना चाहिए। बल्कि पर्यावरण शिक्षा का उद्देश्य उन्हें उनके पारिस्थितिक तंत्र के बारे में जागरूक करना और उस तंत्र की वजह से उनकी अपनी उपस्थिति को महसूस करवाना होना चाहिए। आसान शब्दों में कहूँ तो पर्यावरण शिक्षा का लक्ष्य दुर्लभ या रहस्यमयी जीवों के पीछे भागना नहीं होना चाहिए, बल्कि अपने आस-पास के वातावरण से परिचित करना और उसकी सराहना, सम्मान और रक्षा करना होना चाहिए।
सभी चित्रों का श्रेय मांगर इको क्लब को जाता है।